तिथि

भगवान् क्या हैं ?

Bhagwan-Kya-Hai.png

भगवान् क्या हैं ? 

भगवान् क्या है ? इस सम्बन्ध में मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, वह मेरे अपने निश्चयकी बात है, हो सकता है कि मेरा निश्चय ठीक न हो। मैं यह नहीं कहता कि दूसरों का निश्चय ठीक नहीं है। पर मुझे अपने निश्चय में कोई सन्देह नहीं है, मैं इस विषय में संशयात्मा नहीं हूँ, तथापि दूसरों के निश्चय को गलत बताने का मुझे कोई अधिकार नहीं है ।

 

भगवान् क्या हैं? इन शब्दों का वास्तविक उत्तर तो यही है कि इस बातको भगवान् ही जानते हैं। इसके सिवा भगवान् के विषय में उन्हें तत्त्व से जानने वाला ज्ञानी पुरुष उनके तटस्थ अर्थात् नजदीक का कुछ भाव बतला सकता है। वास्तव में तो भगवान् के स्वरूप को भगवान् ही जानते हैं, तत्त्वज्ञ लोग संकेत के रूप में भगवान् के स्वरूप का कुछ वर्णन कर सकते हैं। परन्तु जो कुछ जानने और वर्णन करने में आता है वास्तव मै भगवान् उससे और भी विलक्षण हैं।

 

वेद, शास्त्र और मुनि महात्मा परमात्मा के सम्बन्ध में सदा से कहते ही आ रहे हैं, किन्तु उनका वह कहना आजतक पूरा नहीं हुआ। अब तक के उनके सब वचनों को मिलाकर या अलग-अलग कर कोई परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का वर्णन करना चाहे, तो उसके द्वारा भी पूरा वर्णन नहीं हो सकता; अधूरा ही रह जाता है । इस विवेचन में यह तो निश्चय हो गया कि भगवान् हैं अवश्य, उनके होने में रत्तीभर भी शङ्का नहीं है, यह दृढ़ निश्चय है । अतएव जो आदमी भगवान् को अपने मन से जैसा समझकर साधन कर रहे हैं, उसमें परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं, परन्तु सुधार कर लेना चाहिये । वास्तव में साधन करने वालों में कोई भी भूल में नहीं हैं या एक तरह से सभी भूलमें हैं ।

 

जो परमात्मा के लिये साधन करता है, वह उसी के मार्गपर चलता है, इसलिये कोई भूल में नहीं हैं और भूल में इसलिये हैं कि जिस किसी एक वस्तु को साध्य या ध्येय मानकर वे उसकी प्राप्ति का साधन करते हैं, उनके उस साध्य या ध्येय से वास्तविक परमात्मा का स्वरूप अत्यन्त ही विलक्षण है । जो जानने, मानने और साधन करने में आता है, वह तो ध्येय परमात्मा को बताने वाला सांकेतिक लक्ष्य है । इसलिये जहाँ तक उस ध्येय की प्राप्ति नहीं होती, वहाँ तक सभी भूल में हैं, ऐसा कहा गया है । परन्तु इससे यह नहीं मानना चाहिये कि पहले भूल को ठीक करके फिर साधन करेंगे । ठीक तो कोई 'कर ही नहीं सकता, यथार्थ प्राप्ति के बाद अपने आप ही ठीक हो जाता है, इससे पहले जो होता है। सो अनुमान होता है और उस अनुमान से जो कुछ किया जाता है वही उसकी प्राप्ति का ठीक उपाय है । जैसे एक आदमी द्वितीयाके चन्द्रमा को देख चुका है, वह दूसरे न देखने वालों को इशारे से बतलाता है कि तू मेरी नजर से देख उस वृक्ष से चार अंगुल ऊँचा चन्द्रमा है। इस कथन से उसका लक्ष्य वृक्ष की ओर होकर चन्द्रमा तक चला जाता है और वह चन्द्र देख लेता है । वास्तव में न तो वह उसकी आँख में घुसकर ही देखता है और न चन्द्रमा उस वृक्ष से चार अंगुल ऊँचा ही है और न चन्द्रमण्डल, जितना छोटा वह देखता है उतना छोटा ही है परन्तु लक्ष्य बँध जाने से वह उसे देख लेता है। कोई द्वितीया के चन्द्रमा का लक्ष्य कराने के लिये सरपत से बतलाते हैं, कोई इससे भी अधिक लक्ष्य कराने के लिये चूने से लकीर खींच कर या चित्र बनाकर उसे दिखाते हैं, परन्तु वास्तव में चन्द्रमा के वास्तविक स्वरूप से इनकी कुछ भी समता नहीं है । न तो इनमें चन्द्रमा का प्रकाश ही है, न ये उतने बड़े ही हैं और न इनमें चन्द्रमा के अन्य गुण ही है। इसी प्रकार लक्ष्य के द्वारा | देखने पर भगवान् देखे या जाने जा सकते हैं। वास्तव में लक्ष्य और उनके असली स्वरूप में वैसा ही अन्तर है, कि जैसा चन्द्रमा और उसके लक्ष्य में ।

 

चन्द्रमा का स्वरूप तो शायद कोई योगी बता भी सकता है, परन्तु भगवान् का स्वरूप कोई भी बता नहीं सकता, क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है । वह तो जब प्राप्त होगा, तभी मालूम होगा । जिसको प्राप्त होगा वह भी उसे समझा नहीं सकेगा । यह तो असली स्वरूप की बात हुई। अब यह बतलाना है कि साधक के लिये यह – ध्येय या लक्ष्य किस प्रकार का होना चाहिये और वह किस प्रकार समझा जा सकता है । इस विषयमें महात्माओं से सुनकर और शास्त्रोंको सुन और देखकर, मेरे अनुभव में जो बातें निश्चयात्मक रूप से जँची हैं, वही बतलायी जाती हैं। किसी की इच्छा हो तो वह उन्हें काम में ला सकता है ।

 

परमात्मा के असली स्वरूप का ध्यान तो वास्तव में बन नहीं सकता । जब तक नेत्रों से, मन से और बुद्धि से परमात्मा के स्वरूप का अनुभव न हो जाय, तब तक जो ध्यान किया जाता है, वह अनुमान से ही होता है। महात्माओं के द्वारा सुनकर, शास्त्रों में पढ़कर, चित्रादि देखकर साधन करने से साधक को परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं। पहले यह बात कही जा चुकी है कि जो 'परमात्मा का जिस प्रकार ध्यान कर रहे हैं, वे वैसा ही करते रहें, परिवर्तन की आवश्यकता नहीं । कुछ सुधार की आवश्यकता अवश्य है ।

 

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥

{{com.CommentedByName}}

{{com.CommentMessage}}

Your Comment

सम्बन्धित पृष्ठ