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विवेक का फल

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विवेक का फल 

श्री रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं:

बिनु सत्संग विवेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥

होय विवेक मोह भ्रम भागा । तब रघुनाथ चरण अनुरागा॥

जिसको सत्संग और शास्त्रों के स्वाध्याय से विचार उत्पन्न होता है, उसको दिन प्रतिदिन भोग की तृष्णा घटती जाती है और आत्म विचार दृढ होता जाता है। जैसे किसी को ज्वर आता हो तो औषधि सेवन से ज्वर चला जाता है और शरीर में शीतलता प्रगट होती है, तैसे ही ज्यों ज्यों विवेक दृढ़ होता है त्यो त्यो इन्द्रियों को जीतता है, सन्तोष से हृदय शीतल होता है और सब प्राणियों में आत्मा का दर्शन होता है। यह विवेक का फल है।

 

जैसे अग्नि के लिखे चित्र से कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता, वैसे ही बिना दृढ़ निश्चय के केवल वचन के विवेक से दुःख की निवृत्ति नहीं होती और शांति प्राप्ति नहीं होती जैसे पवन जब चलता है तब पत्ते और वृक्ष हिलते हैं, और उसका लक्षण भासता है, पर केवल वाणी से कहने से नहीं हिलते, तैसे ही जब विवेक हृदय में आता है तब भोग की तृष्णा घट जाती है, मुख के कहने से तृष्णा नहीं घटती । जैसे अमृत का लिखा चित्र पान करने से अमर होने का कार्य नहीं करता, चित्र की लिखी अग्नि शीत दूर नहीं करती और स्त्री के चित्र के स्पर्श से सन्तान उपजने का कार्य नहीं होता, तैसे ही मुख का विवेक वाणी विलास है और भोग की तृष्णा को निवृत करके शान्ति नहीं प्राप्त कराता । जैसे चित्र देखने ही मात्र होता है तैसे ही वह विवेक वाग्विलास है। प्रथम जब विवेक आता है तब राग द्वेष को नाश करता है और ब्रह्मलोक पर्यन्त जो कुछ विषय भोग रूप है उनसे तृष्णा और वैर भाव को नष्ट करता है। जैसे सूर्य के उदय होने से अन्धकार नष्ट होता है वैसे ही विवेक उदय होनेसे अज्ञान नष्ट हो जाता है और पावन पदकी प्राप्ति होती है। इसलिए विवेक प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए।

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