प्रदोष (त्रयोदशी) व्रत कथा
पूजा की विधि
'प्रदोषो रजनी-मुखम' के अनुसार सायंकाल के बाद और रात्रि आने के पूर्व दोनों के बीच का जो समय है उसे प्रदोष कहते हैं, व्रत करने वाले को उसी समय भगवान शंकर का पूजन करना चाहिये।
प्रदोष व्रत करने वाले को त्रयोदशी के दिन, दिनभर भोजन नहीं करना चाहिये। शाम के समय जब सूर्यास्त में तीन घड़ी का समय शेष रह जाए तब स्नानादि कर्मों से निवृत्त होकर, श्वेत वस्त्र धारण करके तत्पश्चात् संध्यावन्दन । करने के बाद शिवजी का पूजन प्रारम्भ करें। पूजा के स्थान को स्वच्छ जल से धोकर वहाँ मण्डप बनाएँ, वहाँ पाँच रंगों के पुष्पों से पद्म पुष्प की आकृति बनाकर कुश का आसन बिछायें, आसन पर पूर्वाभिमुख बैठें। इसके बाद भगवान महेश्वर का ध्यान करें।
ध्यान का स्वरूप
करोड़ों चन्द्रमा के समान कान्तिवान, त्रिनेत्रधारी, मस्तक पर चन्द्रमा का आभूषण धारण करने वाले पिंगलवर्ण के जटाजूटधारी, नीले कण्ठ तथा अनेक रूद्राक्ष मालाओं से सुशोभित, वरदहस्त, त्रिशूलधारी, नागों के कुण्डल पहने, व्याघ्घ्र चर्म धारण किए हुए, रत्नजड़ित सिंहासन पर विराजमान शिवजी का ध्यान करना चाहिये।
व्रत के उद्यापन की विधि
प्रातः स्नानादि कार्य से निवृत होकर रंगीन वस्त्रों से मण्डप बनावें। फिर उस मण्डप में शिव-पार्वती की प्रतिमा स्थापित करके विधिवत पूजन करें। तदन्तर शिव पार्वती के उद्देश्य से खीर से अग्नि में हवन करना चाहिए। हवन करते समय 'ॐ उमा सहित-शिवाय नमः' मन्त्र से १०८ बार आहुति देनी चाहिये। इसी प्रकार 'ॐ नमः शिवाय' के उच्चारण के शंकर जी के निमित्त आहुति प्रदान करें। हवन के अन्त में किसी धार्मिक व्यक्ति को सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिये। ऐसा करने के बाद ब्राह्मण को भोजन दक्षिणा से सन्तुष्ट करना चाहिये। व्रत पूर्ण हो ऐसा वाक्य ब्राह्मणों द्वारा कहलवाना चाहिये। ब्राह्मणों की आज्ञा पाकर अपने बन्धु-बान्धवों की साथ में लेकर मन में भगवान शंकर का स्मरण करते हुए व्रती को भोजन करना चाहिये। इस प्रकार उद्यापन करने से व्रती पुत्र-पौत्रादि से युक्त होता है तथा आरोग्य लाभ करता है। इसके अतिरिक्त वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है एवं सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। ऐसा स्कन्द पुराण में कहा गया है।
त्रयोदशी व्रत महात्म्य
त्रयोदशी अर्थात् प्रदोष का व्रत करने वाला मनुष्य सदा सुखी रहता है। उसके सम्पूर्ण पापों का नाश इस व्रत से हो जाता है। इस व्रत के करने से विधवा स्त्रियों को अधर्म से ग्लानि होती है और सुहागन नारियों का सुहाग सदा अटल रहता है, बन्दी कारागार से छूट जाता है। जो स्त्री पुरुष जिस कामना को लेकर इस व्रत को करते हैं, उनकी सभी कामनाएँ कैलाशपति शंकर पूरी करते हैं। सूत जी कहते हैं - त्रयोदशी का व्रत करने वाले को सौ गऊ दान का फल प्राप्त होता है। इस व्रत को जो विधि विधान और तन, मन, धन से करता है उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं। सभी माता-बहनों को ग्यारह त्रयोदशी या पूरे साल की २६ त्रयोदशी पूरी करने के बाद उद्यापन करना चाहिये।
प्रदोष व्रत में वार परिचय
१. रवि प्रदोष- दीर्घ आयु और आरोग्यता के लिये रवि प्रदोष व्रत करना चाहिये ।
२. सोम प्रदोष - ग्रह दशा निवारण कामना हेतु सोम प्रदोष व्रत करें।
३. मंगल प्रदोष- रोगों से मुक्ति और स्वास्थ्य हेतु मंगल प्रदोष व्रत करें।
४. बुध प्रदोष - सर्व कामना सिद्धि के लिये बुध प्रदोष व्रत करें।
५. बृहस्पति प्रदोष - शत्रु विनाश के लिये बृहस्पति प्रदोष व्रत करें।
६. शुक्र प्रदोष - सौभाग्य और स्त्री की समृद्धि के लिये शुक्र प्रदोष व्रत करें।
७. शनि प्रदोष - खोया हुआ राज्य व पद प्राप्ति कामना हेतु शनि प्रदोष व्रत करें।
नोट : त्रयोदशी के दिन जो वार पड़ता हो उसी का (त्रयोदशी प्रदोष व्रत) करना चाहिये। तथा उसी दिन की कथा पढ़नी व सुननी चाहिये। रवि, सोम, शनि (त्रयोदशी प्रदोष व्रत) अवश्य करें। इन सभी से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
रविवार त्रयोदशी (रवि प्रदोष) व्रत
आयु वृद्धि आरोग्यता, या चाहो सन्तान।शिव पूजन विधिवत् करो, दुःख हरें भगवान ॥
एक समय सर्व प्राणियों के हितार्थ परम पावन भागीरथी के तट पर ऋषि समाज द्वारा विशाल गोष्ठी का आयोजन किया गया। विज्ञ महर्षियों की एकत्रित सभा में व्यास जी के परम शिष्य पुराणवेत्ता सूत जी महाराज हरि कीर्तन करते हुए पधारे। सूत जी को देखते ही शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि मुनियों ने खड़े होकर दंडवत् प्रणाम किया। महाज्ञानी सूत जी ने भक्ति भाव से ऋषियों को हृदय से लगाया तथा आशीर्वाद दिया। विद्वान ऋषिगण और सब शिष्य आसनों पर विराजमान हो गये।
मुनिगण विनीत भाव से पूछने लगे कि हे परम दयालु ! कलिकाल में शंकर की भक्ति किस आराधना द्वारा उपलब्ध होगी, हम लोगों को बताने की कृपा कीजिए, क्योंकि कलयुग के सर्व प्राणी पाप कर्म में रत रहकर वेद शास्त्रों से विमुख रहेंगे। दीनजन अनेकों संकटों से त्रस्त रहेंगे। हे मुनिश्रेष्ठ ! कलिकाल में सत्कर्म की ओर किसी की रुचि न होगी। जब पुण्य क्षीण हो जायेंगे तो मनुष्य की बुद्धि असत् कर्मों की ओर खुद ब खुद प्रेरित होगी जिससे दुर्विचारी पुरुष वंश सहित समाप्त हो जायेंगे। इस अखिल भूमण्डल पर जो मनुष्य ज्ञानी होकर ज्ञान की शिक्षा नहीं देता, उस पर परमपिता परमेश्वर कभी प्रसन्न नहीं होते हैं। हे महामुने ! ऐसा कौन सा उत्तम व्रत है जिससे मनवांछित फल की प्राप्ति होती हो, आप कृपा कर बतलाइये। ऐसा सुनकर दयालु हृदय, श्री सूत जी कहने लगे -कि हे श्रेष्ठ मुनियों तथा शौनक जी आप धन्यवाद के पात्र हैं। आपके विचार सराहनीय एवं प्रशंसनीय हैं। आप वैष्णव अग्रगण्य हैं क्योंकि आपके हृदय में सदा परहित की भावना रहती है, इसलिए हे शौनकादि ऋषियों, सुनो - मैं उस व्रत को तुमसे कहता हूँ जिसके करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। धन, वृद्धिकारक, दुःख विनाशक, सुख प्राप्त कराने वाला, सन्तान देने वाला, मनवांछित फल प्राप्ति कराने वाला यह व्रत तुमको सुनाता हूँ जो किसी समय भगवान शंकर ने सती जी को सुनाया था और उनसे प्राप्त यह परमश्रेष्ठ उपदेश मेरे पूज्य गुरु जी ने मुझे सुनाया था। जिसे आपको समय पाकर शुभ बेला में मैं सुनाता हूँ। बोलो उमापति शंकर भगवान की जय।
सूत जी कहने लगे कि आयु, वृद्धि, स्वास्थ्य लाभ हेतु त्रयोदशी का व्रत करें। इसकी विधि इस प्रकार है- प्रातः स्नान कर निराहार रहकर, शिव ध्यान में मग्न हो, शिव मन्दिर में जाकर शंकर की पूजा करें। पूजा के पश्चात् अर्द्ध पुण्ड त्रिपुण्ड का तिलक धारण करें, बेल पत्र चढ़ावें, धूप, दीप अक्षत से पूजा करें, ऋतु फल चढ़ावे "ॐ नमः शिवाय" मन्त्र का रुद्राक्ष की माला से जप करें, ब्राह्मण को भोजन करा सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा दें। तत्पश्चात् मौन व्रत धारणकरें, व्रती को सत्य भाषण करना आवश्यक है, हवन आहुति भी देनी चाहिये।
मन्त्र - "ओं ह्रीं क्लीं नमः शिवाय स्वाहा" से आहुति देनी चाहिये। इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। व्रती पृथ्वी पर शयन करें, एक बार भोजन करे इससे सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। श्रावण मास में तो इसका विशेष महत्व है। यह सर्वसुख धन, आरोग्यता देने वाला है, यह व्रत इस सब मनोरथों को पूर्ण करता है। हे ऋषिवरों! यह प्रदोष व्रत जो मैंने आपको बताया किसी समय शंकर जी ने सती जी को और वेदव्यास मुनि ने मुझको सुनाया था।
शौनकादि ऋषि बोले- हे पूज्यवर महामते ! आपने यह व्रत परम गोपनीय मंगलप्रद, कष्ट निवारक बतलाया है! कृपया यह बताने का कष्ट करें कि यह व्रत किसने किया और उसे क्या फल प्राप्त हुआ ?
श्री सूत जी बोले- हे विचारवान् ज्ञानियों! आप शिव के परम भक्त हैं, आपकी भक्ति देखकर मैं व्रती पुरुषों की कथा कहता हूँ।
एक गाँव में अति दीन ब्राह्मण निवास करता था। उसकी साध्वी स्त्री प्रदोष व्रत किया करती थी, उसके घर ही पुत्र रत्न था। एक समय की बात है कि वह पुत्र गंगा स्नान करने के लिये गया। दुर्भाग्यवश मार्ग में चोरों ने उसे घेर लिया और वह कहने लगे कि हम तुझे मारेंगे, नहीं तो तू अपने पिता का गुप्त धन बतलादे । बालक दीन भाव से कहने लगा कि हे बन्धुओं! हम अत्यन्त दुःखी दीन हैं। हमारे पास धन कहाँ है? चोर फिर कहने लगे कि तेरे पास पोटली में क्या बंधा है ? बालक ने निःसंकोच उत्तर दिया कि मेरी माता ने मुझे रोटी बनाकर बाँध दी है। दूसरा चोर बोला कि भाई यह तो अति दीन दुःखी हृदय है, इसे छोड़िये । बालक इतनी बात सुनकर वहाँ से प्रस्थान करने लगा और एक नगर में पहुँचा। नगर के पास एक बरगद का पेड़ था, बालक थककर वहाँ बैठ गया और वृक्ष की छाया में सो गया, उस नगर के सिपाही चोरों की खोज कर रहे थे कि खोज करते-करते उस बालक के पास आ गये, सिपाही बालक को भी चोर समझकर राजा के समीप ले गये। राजा ने उसे कारावास की आज्ञा दे दी। उधर बालक की माँ भगवान शंकर जी का प्रदोष व्रत कर रही थी, उसी रात्रि राजा को स्वप्न हुआ कि यह बालक चोर नहीं है, प्रातः काल ही छोड़ दो नहीं तो आपका राज्य-वैभव सब शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा। रात्रि समाप्त होने पर राजा ने उस बालक से सारा वृतान्त पूछा, बालक ने सारा वृतान्त कह सुनाया। वृतान्त सुनकर राजा ने सिपाही भेजकर बालक के माता-पिता को पकड़वाकर बुला लिया। राजा ने उन्हें जब भयभीत देखा तो कहा कि तुम भय मत करो, तुम्हारा बालक निर्दोष है। हम तुम्हारी दरिद्रता देखकर पाँच गाँव दान में देते हैं। शिव की दया से ब्राह्मण परिवार अब आनन्द से रहने लगा। इस प्रकार जो कोई इस व्रत को करता है, उसे आनन्द प्राप्त होता है। शौनकादि ऋषि बोले- कि हे दयालु कृपा करके अब आप सोम त्रयोदशी प्रदोष का व्रत सुनाइये ।
सोमवार त्रयोदशी (सौम्य प्रदोष) व्रत
सूत जी बोले- हे ऋषिवरों! अब मैं सोम त्रयोदशी व्रत का महात्म्य वर्णन करता हूँ। इस व्रत के करने से शिव पार्वती प्रसन्न होते हैं। प्रातः स्नानादि कर शुद्ध पवित्र हो शिव पार्वती का ध्यान करके पूजन करें और अर्घ्य दें। "ओ३म् नमः शिवाय" इस मन्त्र का १०८ बार जाप करें फिर स्तुति करें- हे प्रभो! मैं इस दुःख सागर में गोते खाता हुआ ऋण भार से दबा, ग्रहदशा से ग्रसित हूँ, हे दयालु ! मेरी रक्षा कीजिए।
शौनकादि ऋषि बोले- हे पूज्यवर महामते, आपने यह व्रत सम्पूर्ण कामनाओं के लिए बताया है, अब कृपा कर यह बताने का कष्ट करें कि यह व्रत किसने किया व क्या फल पाया ?
सूत जी बोले - एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी। उसके पति का स्वर्गवासहो गया था। कोई भी उसका धीर धरैया न था। इसलिए वह सुबह होते ही वह अपने पुत्र के साथ भीख माँगने निकल जाती और जो भिक्षा मिलती उसी से वह अपना अपने पुत्र का पेट भरती थी।
एक दिन ब्राह्मणी भीख माँग कर लौट रही थी तो उसे एक लड़का मिला, उसकी दशा बहुत खराब थी। ब्राह्मणी को उस पर दया आ गई। वह उसे अपने साथ घर ले आई।
वह लड़का विदर्भ का राजकुमार था। पड़ौसी राजा ने उसके पिता पर आक्रमण करके उसके राज्य पर कब्जा कर लिया था। इसलिए वह मारा-मारा फिर रहा था। ब्राह्मणी के घर पर वह ब्राह्मण कुमार के साथ रहकर पलने लगा। एक दिन ब्राह्मण कुमार और राजकुमार खेल रहे थे। उन्हें वहाँ गन्धर्व कन्याओं ने देख लिया। वे राजकुमार पर मोहित हो गई। ब्राह्मण कुमार तो घर लौट आया लेकिन राजकुमार अंशुमति नामक गन्धर्व कन्या से बात करता रह गया। दूसरे दिन अंशुमति अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने के लिए ले आई। उनको भी राजकुमार पसन्द आया। कुछ ही दिनों बाद अंशुमति के माता-पिता को शंकर भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि वे अपनी कन्या का विवाह राजकुमार से कर दें। फलतः उन्होंने अंशुमति का विवाह राजकुमार से कर दिया।
ब्राह्मणी को ऋषियों ने आज्ञा दे रखी थी कि वह सदा प्रदोष व्रत करती रहे। उसके व्रत के प्रभाव और गन्धर्वराज की सेनाओं की सहायता से राजकुमार ने विदर्भ से शत्रुओं को मार भगाया और अपने पिता के राज्य को पुनः प्राप्त कर वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगा। राजकुमार ने ब्राह्मण कुमार को अपना प्रधानमंत्री बनाया।
राजकुमार और ब्राह्मण कुमार के दिन जिस प्रकार ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत की कृपा से फिरे, उसी प्रकार शंकर भगवान अपने दूसरे भक्तों के दिन भी फेरते हैं। तभी से प्रदोष व्रत का संसार में बड़ा महत्त्व है। शौनक ऋषि सूत जी से बोले -कृपा करके अब आप मंगल प्रदोष की कथा का वर्णन कीजियेगा।
मंगलवार त्रयोदशी (मंगल प्रदोष) व्रत
सूत जी बोले- अब मैं मंगल त्रयोदशी प्रदोष व्रत का विधि विधान कहता हूँ। मंगलवार का दिन व्याधियों का नाशक है। इस व्रत में एक समय व्रती को गेहूँ और गुड़ का भोजन करना चाहिये। देव प्रतिमा पर लाल रंग का फूल चढ़ाना और स्वयं लाल वस्त्र धारण करना चाहिये। इस व्रत के करने से मनुष्य सभी पापों व रोगों से मुक्त हो जाता है इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है। अब मैं आपको उस बुढ़िया की कथा सुनाता हूँ जिसने यह व्रत किया व मोक्ष को प्राप्त हुई।
अत्यन्त प्राचीन काल की घटना है। एक नयर में एक बुढ़िया रहती थी। उसके मंगलिया नाम का एक पुत्र था। वृद्धा को हनुमान जी पर बड़ी श्रद्धा थी। वह प्रत्येक मंगलवार को हनुमान जी का व्रत रखकर यथाविधि उनका भोग लगाती थी। इसके अलावा मंगलवार को न तो घर लीपती थी और न ही मिट्टी खोदती थी।
इसी प्रकार से व्रत रखते हुए जब उसे काफी दिन बीत गए तो हनुमान जी ने सोचा कि चलो आज इस वृद्धा की श्रद्धा की परीक्षा करें। वे साधु का वेष बनाकर उसके द्वार पर जा पहुँचे और पुकारा "है कोई हनुमान का भक्त जो हमारी इच्छा पूरी करे।" वृद्धा ने यह पुकार सुनी तो बाहर आई और पूछा कि महाराज क्या आज्ञा है ? साधु वेषधारी हनुमान जी बोले कि 'मैं बहुत भूखा हूँ भोजन करूँगा। तू थोड़ी सी जमीन लीप दे।' वृद्धा बड़ी दुविधा में पड़ गई। अन्त में हाथ जोड़कर प्रार्थना की- हे महाराज ! लीपने और मिट्टी खोदने के अतिरिक्त जो काम आप कहें वह मैं करने को तैयार हूँ।
साधु ने तीन बार परीक्षा कराने के बाद कहा- "तू अपने बेटे को बुला मैं उसे औंधा लिटाकर, उसकी पीठ पर आग जलाकर भोजन बनाऊँगा।" वृद्धा ने सुना तो पैरों तले की धरती खिसक गई, मगर वह वचन हार चुकी थी। उसने मंगलिया को पुकार कर साधु महाराज के हवाले कर दिया। मगर साधु ऐसे ही मानने वाले न थे। उन्होंने वृद्धा के हाथों से ही मंगलिया को ओंधा लिटाकर उसकी पीठ पर आग जलवाई।
आग जलाकर, दुःखी मन से वृद्धा अपने घर के अन्दर जा घुसी। साधु जब भोजन बना चुका तो उसने वृद्धा को बुला कर कहा कि वह मंगलिया को पुकारे ताकि वह भी आकर भोग लगा ले। वृद्धा आँखों में आँसू भरकर कहने लगी कि अब उसका नाम लेकर मेरे हृदय को और न दुःखाओ, लेकिन साधु महाराज न माने तो वृद्धा को भोजन के लिए मंगलिया को पुकारना पड़ा। पुकारने की देर थी कि मंगलिया बाहर से हँसता हुआ घर में दौड़ा आया। मंगलिया को जीता जागता देखकर वृद्धा को सुखद आश्चर्य हुआ। वह साधु महाराज के चरणों में गिर पड़ी। साधु महाराज ने उसे अपने असली रूप के दर्शन दिए। हनुमान जी को अपने आँगन में देखकर वृद्धा को लगा कि जीवन सफल हो गया। सूत जी बोले- हे ऋषियों अब मैं आपको बुध त्रयोदशी प्रदोष की कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनिये ।
बुधवार त्रयोदशी (बुध प्रदोष) व्रत
१. इस व्रत में दिन में केवल एक बार भोजन करना चाहिये।
२. इसमें हरी वस्तुओं का प्रयोग किया जाना जरूरी है।
३. यह व्रत शंकर भगवान का प्रिय व्रत है। शंकर जी की पूजा धूप, बेल पत्रादि से की जाती है।
प्राचीन काल की कथा है, एक पुरुष का नया-नया विवाह हुआ था। वह गौने के बाद दूसरी बार पत्नी को लिवाने के लिए अपनी ससुराल पहुँचा और उसने सास से कहा कि बुधवार के दिन ही पत्नी को लेकर अपने नगर जायेगा।
उस पुरुष के सास-ससुर ने, साले-सालियों ने उसको समझाया कि बुधवार को पत्नी को विदा कराकर ले जाना शुभ नहीं है, लेकिन वह पुरुष अपनी जिद से टस से मस नहीं हुआ। विवश होकर सास-ससुर को अपने जमाता और पुत्री को भारी मन से विदा करना पड़ा।
पति-पत्नी बैलगाड़ी में चले जा रहे थे। एक नगर के बाहर निकलते ही पत्नी को प्यास लगी। पति लोटा लेकर पत्नी के लिए पानी लेने गया। जब वह पानी लेकर लौटा तो उसके क्रोध और आश्चर्य की सीमा न रही, क्योंकि उसकी पत्नी किसी अन्य पुरुष के लाये लोटे में से पानी पीकर हँस-हँसकर बतिया रही थी। क्रोध में आग-बबूला होकर वह उस आदमी से झगड़ा करने लगा। मगर यह देखकर आश्चर्य की सीमा न रही कि उस पुरुष की शक्ल उस आदमी से हूबहू मिलती थी।
हम शक्ल आदमियों को झगड़ते हुए जब काफी देर हो गई तो वहाँ आने-जाने वालों की भीड़ एकत्र हो गई, सिपाही भी आ गया। सिपाही ने स्त्री से पूछा कि इन दोनों में से कौन सा आदमी तेरा पति है, तो वह बेचारी असमंजस में पड़ गई, क्योंकि दोनों की शक्ल एक-दूसरे से बिल्कुल मिलती थी।
बीच राह में अपनी पत्नी को इस तरह लुटा देखकर उस पुरुष की आँख भरआई। वह शंकर भगवान से प्रार्थना करने लगा, कि हे भगवान आप मेरी और मेरी पत्नी की रक्षा करो। मुझसे बड़ी भूल हुई जो मैं बुधवार को पत्नी को विदा करा लाया। भविष्य में ऐसा अपराध कदापि नहीं करूँगा।
उसकी वह प्रार्थना जैसे ही पूरी हुई कि दूसरा पुरुष अर्न्तध्यान हो गया और वह पुरुष सकुशल अपनी पत्नी के साथ अपने घर पहुँच गया। उस दिन के बाद पति-पत्नी नियमपूर्वक बुधवार प्रदोष व्रत रखने लगे।
बृहस्पतिवार त्रयोदशी (गुरु प्रदोष) व्रत
शत्रु विनाशक भक्ति प्रिय, व्रत है यह अति श्रेष्ठ । बार मास तिथि सब से भी, है यह व्रत अति जेष्ठ ॥ कथा इस प्रकार है कि एक बार इन्द्र और वृत्रासुर में घनघोर युद्ध हुआ। उस समय देवताओं ने दैत्य सेना पराजित कर नष्ट-भ्रष्ट कर दी। अपना विनाश देख वृत्रासुर अत्यंत क्रोधित हो स्वयं युद्ध के लिये उद्यत हुआ। मायावी आसुर ने आसुरी माया से भयंकर विकराल रूप धारण किया। उसके स्वरूप को देख इन्द्रादिक सब देवताओं ने इन्द्र के परामर्श से परम गुरु बृहस्पति जी का आवाह्न किया, गुरु तत्काल आकर कहने लगे- हे देवेन्द्र ! अब तुम वृत्रासुर की कथा ध्यान मग्न होकर सुनो - वृत्रासुर प्रथम बड़ा तपस्वी कर्मनिष्ठ था, इसने गन्धमादन पर्वत पर उग्र तप करके शिवजी को प्रसन्न किया था। पूर्व समय में यह चित्ररथ नाम का राजा था, तुम्हारे समीपस्थ जो सुरम्य वन है वह इसी का राज्य था, अब साधु प्रवृत्ति विचारवान् महात्मा उस वन में आनन्द लेते हैं। भगवान के दर्शन की अनुपम भूमि है। एक समय चित्ररथ स्वेच्छा से कैलाश पर्वत पर चला गया। भगवान का स्वरूप और वाम अंग में जगदम्बा को विराजमान देख चित्ररथ हँसा और हाथ जोड़कर शिव शंकर से बोला- हे प्रभो! हम माया मोहित हो विषयों में फँसे रहने के कारण स्त्रियों के वशीभूत रहते हैं किन्तु देव लोक में ऐसा कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ कि कोई स्त्री सहित सभा में बैठे। चित्ररथ के ये वचन सुनकर सर्वव्यापी भगवान शिव हँसकर बोले कि हे राजन् ! मेरा व्यवहारिक दृष्टिकोण पृथक है। मैंने मृत्युदाता काल कूट महाविष का पान किया है।
फिर भी तुम साधारण जनों की भाँति मेरी हँसी उड़ाते हो। तभी पार्वती क्रोधित हो चित्ररथ की ओर देखती हुई कहने लगी- ओ दुष्ट तूने सर्वव्यापी महेश्वर के साथ ही मेरी हँसी उड़ाई है, तुझे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ेगा।
उपस्थित सभासद महान विशुद्ध प्रकृति के शास्त्र तत्वान्वेषी हैं, और सनक सनन्दन सनत्कुमार हैं, ये सर्व अज्ञान के नष्ट हो जाने पर शिव भक्ति में तत्पर हैं, अरे मूर्खराज ! तू अति चतुर है अतएव मैं तुझे वह शिक्षा दूँगी कि फिर तू ऐसे संतों के मजाक का दुःसाहस ही न करेगा। अब तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर, तुझे मैं शाप देती हूँ कि अभी पृथ्वी पर चला जा। जब जगदम्बा भवानी ने चित्ररथ को ये शाप दिया तो वह तत्क्षण विमान से गिरकर, राक्षस योनि को प्राप्त हो गया और प्रख्यात महासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। तवष्टा नामक ऋषि ने उसे श्रेष्ठ तप से उत्पन्न किया और अब वही वृत्रासुर शिव भक्ति में ब्रह्मचर्य से रहा। इस कारण तुम उसे जीत नहीं सकते, अतएव मेरे परामर्श से यह प्रदोष व्रत करो जिससे महाबलशाली दैत्य पर विजय प्राप्त कर सको। गुरुदेव के वचनों को सुनकर सब देवता प्रसन्न हुए और गुरुवार त्रयोदशी (प्रदोष) व्रत को विधि विधान से किया।
शुक्रवार त्रयोदशी (शुक्र प्रदोष) व्रत
शुक्रवार त्रयोदशी प्रदोष व्रत पूजा विधि सोम प्रदोष के समान ही है इसमें श्वेत रंग तथा खीर जैसे पदार्थ ही सेवन करने का महत्व होता है।
सूत जी बोले - प्राचीन काल की बात है एक नगर में तीन मित्र रहते थे, तीनों में ही घनिष्ट मित्रता थी। उनमें एक राजकुमार पुत्र, दूसरा ब्राह्मण पुत्र, तीसरा सेठ पुत्र था। राजकुमार व ब्राह्मण पुत्र का विवाह हो चुका था सेठ पुत्र का विवाह के बाद गौना नहीं हुआ था।
एक दिन तीनों मित्र आपस में स्त्रियों की चर्चा कर रहे थे। ब्राह्मण पुत्र ने नारियों की प्रशंसा करते हुए कहा- "नारीहीन घर भूतों का डेरा होता है।" सेठ पुत्र ने यह वचन सुनकर अपनी पत्नी लाने का तुरन्त निश्चय किया। सेठ पुत्र अपने घर गया और अपने माता-पिता से अपना निश्चय बताया। उन्होंने बेटे से कहा कि शुक्र देवता डूबे हुए हैं। इन दिनों बहु-बेटियों को उनके घर से विदा कर लाना शुभ नहीं, अतः शुक्रोदय के बाद तुम अपनी पत्नी को विदा करा लाना। सेठ पुत्र अपनी जिद से टस से मस नहीं हुआ और अपनी ससुराल जा पहुँचा। सास-ससुर को उसके इरादे का पता चला। उन्होंने इसको समझाने की कोशिश की किन्तु वह नहीं माना। अतः उन्हें विवश हो अपनी कन्या को विदा करना पड़ा।
ससुराल से विदा होकर पति-पत्नी नगर से बाहर निकले ही थे कि उनकी बैलगाड़ी का पहिया टूट गया और एक बैल की टाँग टूट गयी। पत्नी को भी काफी चोट आई। सेठ पुत्र ने आगे चलने का प्रयत्न जारी रखा तभी डाकुओं से भेंट हो गई और वे धन-धान्य लूटकर ले गये। सेठ का पुत्र पत्नी सहित रोता पीटता अपने घर पहुँचा। जाते ही उसे साँप ने डस लिया। उसके पिता ने वैद्यों को बुलाया। उन्होंने देखने के बाद घोषणा की कि आपका पुत्र तीन दिन में मर जाएगा।
उसी समय इस घटना का पता ब्राह्मण पुत्र को लगा। उसने सेठ से कहा कि आप अपने लड़के को पत्नी सहित बहू के घर वापस भेज दो। यह सारी बाधाएँ इसलिए आयी हैं कि आपका पुत्र शुक्रास्त में पत्नी को विदा करा लाया है, यदि यह वहाँ पहुँच जायेगा तो बच जाएगा। सेठ को ब्राह्मण पुत्र की बात जंच गई और अपनी पुत्रवधु और पुत्र को वापिस लौटा दिया। वहाँ पहुँचते ही सेठ पुत्र की हालत ठीक होनी आरम्भ हो गई। तत्पश्चात उन्होंने शेष जीवन सुख आनन्दपूर्वक व्यतीत किया और अन्त में वह पति-पत्नी दोनों स्वर्ग लोक को गये।
शनिवार त्रयोदशी (शनि प्रदोष) व्रत
गर्गाचार्य जी ने कहा- हे महामते! आपने शिव शंकर प्रसन्नता हेतु समस्त प्रदोष व्रतों का वर्णन किया अब हम शनि प्रदोष विधि सुनने की इच्छा रखते हैं, सो कृपा करके सुनाइये। तब सूत जी बोले- हे ऋषि ! निश्चयात्मक रूप से आपका शिव-पार्वती के चरणों में अत्यन्त प्रेम है, मैं आपको शनि त्रयोदशी के व्रत की विधि बतलाता हूँ, सो ध्यान से सुनें।
पुरातन कथा है कि एक निर्धन ब्राह्मण की स्त्री दरिद्रता से दुःखी हो शांडिल्य ऋषि के पास जाकर बोली- हे महामुने ! मैं अत्यन्त दुःखी हूँ दुःख निवारण का उपाय बतलाइये। मेरे दोनों पुत्र आपकी शरण में हैं। मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है जो कि राजपुत्र है और लघु पुत्र का नाम शुचिव्रत है अतः हम दरिद्री हैं, आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं, इतनी बात सुन ऋषि ने शिव प्रदोष व्रत करने के लिए कहा। तीनों प्राणी प्रदोष व्रत करने लगे। कुछ समय पश्चात् प्रदोष व्रत आया तब तीनों ने व्रत का संकल्प लिया। छोटा लड़का जिसका नाम शुचिव्रत था एक तालाब पर स्नान करने को गया तो उसे मार्ग में स्वर्ण कलश धन से भरपूर मिला, उसको लेकर वह घर आया, प्रसन्न हो माता से कहा कि माँ! यह धन मार्ग से प्राप्त हुआ है, माता ने धन देखकर शिव महिमा का वर्णन किया। राजपुत्र को अपने पास बुलाकर बोली देखो पुत्र, यह धन हमें शिवजी की कृपा से प्राप्त हुआ है। अतः प्रसाद के रूप में दोनों पुत्र आधा-आधा बाँट लो, माता का वचन सुन राजपुत्र ने शिव-पार्वती का ध्यान किया और बोला - पूज्य यह धन आपके पुत्र का ही है मैं इसका अधिकारी नहीं हूँ। मुझे शंकर भगवान और माता पार्वती जब देंगे तब लूँगा। इतना कहकर वह राजपुत्र शंकर जी की पूजा में लग गया, एक दिन दोनों भाईयों का प्रदेश भ्रमण का विचार हुआ, वहाँ उन्होंने अनेक गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देखा, उन्हें देख शुचिव्रत ने कहा- भैया अब हमें इससे आगे नहीं जाना है, इतना कह शुचिव्रत उसी स्थान पर बैठ गया, परन्तु राजपुत्र अकेला ही स्त्रियों के बीच में जा पहुँचा। वहाँ एक स्त्री अति सुन्दरी राजकुमार को देख मोहित हो गई और राजपुत्र के पास पहुँचकर कहने लगी कि हे सखियों! इस वन के समीप ही जो दूसरा वन है तुम वहाँ जाकर देखो भाँति-भाँति के पुष्प खिले हैं, बड़ा सुहावना समय है, उसकी शोभा देखकर आओ, मैं यहाँ बैठी हूँ, मेरे पैर में बहुत पीड़ा है। ये सुन सब सखियाँ दूसरे वन में चली गयीं। वह अकेली सुन्दर राजकुमार की ओर देखती रही। इधर राजकुमार भी कामुक दृष्टि से निहारने लगा, युवती बोली- आप कहाँ रहते हैं? वन में कैसे पधारे ? किस राजा के पुत्र हैं? क्या नाम है ? राजकुमार बोला- मैं विदर्भ नरेश का पुत्र हूँ, आप अपना परिचय दें। युवती बोली - मैं बिद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री हूँ, मेरा नाम अंशुमति है मैंने आपकी मनःस्थिति को जान लिया है कि आप मुझ पर मोहित हैं, विधाता ने हमारा तुम्हारा संयोग मिलाया है। युवती ने मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया। राजकुमार हार स्वीकार करते हुए बोला कि हे भद्रे ! मैंने आपका प्रेमोपहार स्वीकार कर लिया है, परन्तु मैं निर्धन हूँ। राजकुमार के इन वचनों को सुनकर गन्धर्व कन्या बोली कि मैं जैसा कह चुकी हूँ वैसा ही करूँगी, अब आप अपने घर जायें। इतना कहकर वह गन्धर्व कन्या सखियों से जा मिली। घर जाकर राजकुमार ने शुचिव्रत को सारा वृतांत कह सुनाया।
जब तीसरा दिन आया वह राजपुत्र शुचिव्रत को लेकर उसी वन में जा पहुँचा, वही गन्धर्व राज अपनी कन्या को लेकर आ पहुँचा। इन दोनों राजकुमारों को देख आसन दे कहा कि मैं कैलाश पर गया था वहाँ शंकर जी ने मुझसे कहा कि धर्मगुप्त नाम का राजपुत्र है जो इस समय राज्य विहीन निर्धन है, मेरा परम भक्त है, हे गन्धर्व राज ! तुम उसकी सहायता करो, मैं महादेव जी की आज्ञा से इस कन्या को आपके पास लाया हूँ। आप इसका निर्वाह करें, मैं आपकी सहायता कर आपको राजगद्दी पर बिठा दूँगा। इस प्रकार गन्धर्व राज ने कन्या का विधिवत विवाह कर दिया। विशेष धन और सुन्दर गन्धर्व कन्या को पाकर राजपुत्र अति प्रसन्न हुआ। भगवत कृपा से वह समयोपरान्त अपने शत्रुओं को दमन करके राज्य का सुख भोगने लगा।
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